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MahaRana (Kavita)

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Guru Siyag's Siddha Yoga (GSSY) : A Silent Revolution ! आध्यात्मिक विज्ञान Spritual science https://t.co/cWrNhLq0Hi आपमें अभी से परिवर्तन आना शुरू हो जाएग

Amsterdam, The Netherlands
Joined May 2020
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MahaRana (Kavita)
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कुछ लोगों का कहना है जब कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है तब तुम्हारे पागल होने का खतरा हो सकता है या तुम्हारा शरीर भयानक व्याधियों का शिकार हो सकता है। ये भय निराधार हैं; कुण्डलिनी के उदर में कोई व्याधियाँ नहीं हैं। इसके विपरीत, कुण्डलिनी रोगों का भक्षण करती है और शुद्ध अमृत का स्त्रवण करती है। किन्तु कुछ लोग स्वप्रयत्न द्वारा, हठयोग की तकनीकों से जैसे कि मुद्राओं और बन्ध द्वारा या अपने ही असामान्य उपायों द्वारा बलपूर्वक कुण्डलिनी को जाग्रत करने का प्रयास करते हैं और ऐसे में कुछ भी हो सकता है। यदि कुण्डलिनी उचित रूप से ऊर्ध्वगामी नहीं होती है तो यह हानिकारक हो सकता है। जो व्यक्ति इस प्रकार असामान्य उपायों का सहारा लेकर अपने आप कुण्डलिनी को जाग्रत करने का प्रयत्न करता है, वह कुण्डलिनी जागृति में सफल नहीं होता वरन् उसे कुपित करने में ही सफल होता है। और यदि कुण्डलिनी एक सीमा से अधिक कुपित हो जाए तो व्यक्ति अपना मानसिक सन्तुलन खो सकता है अथवा उसका शरीर दुर्बल हो सकता है। परन्तु यदि कुण्डलिनी गुरुकृपा से स्वयमेव जाग्रत होती है और यदि कुण्डलिनी योग की प्रक्रिया का आरम्भ शक्ति स्वयं करती है तो ऐसे विपरीत प्रभाव होना असम्भव है क्योंकि कुण्डलिनी के साम्राज्य में शारीरिक अथवा मानसिक रोग जैसा कुछ है ही नहीं। प्रत्येक मनुष्य के अन्दर एक दिव्य शक्ति का वास है जिसे कुण्डलिनी कहते हैं। इस शक्ति के दो पहलू हैं: एक इस बाह्य जगत को प्रकट करता है और दूसरा हमें परमसत्य की ओर ले जाता है। इस शक्ति का सांसारिक रूप बिलकुल सही रीति से कार्य कर रहा है, परन्तु आन्तरिक रूप निष्क्रिय है, सुप्त है। जब अन्तर-कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है तो यह हमारे अन्दर योग की विभिन्न प्रक्रियाएँ प्रारम्भ कर देती है और हमें आत्मस्थिति तक ले जाती है। यही कारण है कि कुण्डलिनी के ज्ञान से अधिक महत्त्वपूर्ण अन्य कोई ज्ञान नहीं है।#cureForRareDisease
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जीवन_सत्य_है_या_मृत्यु_सत्य_है मनुष्य अपने शरीर से अपनी आत्मा को अलग करना जान जाय--इसी का नाम समाधि है। वास्तव में ध्यान और समाधि शरीर को आत्मा से अलग करने की एक यौगिक कला है। इस कला द्वारा मनुष्य शरीर और आत्मा अलग-अलग जान-समझ सकता है। शरीर क्या है और आत्मा क्या है ?--समाधि में इन दोनों का ज्ञान अलग-अलग होता है। दोनों की भिन्नता समझ में आती है। दोनों का महत्व समझ में आता है। समाधि में मृत्यु से जब साक्षात्कार होता है तो मनुष्य को पहली बार यह समझ में आता है कि मृत्यु के बाद भी उसका अस्तित्व पूर्ववत है। समाधि का बस एक मात्र यही अर्थ है कि स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश करना और लौटना तो उसके अनुभव को लेकर लौटना। वास्तव में मृत्यु के बाद जो अनुभव होता है वह जीते जी समाधि से प्राप्त हो जाता है। मृत्यु और समाधि में बस इतना ही अंतर है कि मृत्यु में शरीर से आत्मा अलग हो कर पुनः शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती जबकि समाधि की अवस्था में शरीर से आत्मा जैसे निकलती है, वैसे ही शरीर में प्रवेश भी करती है। मनुष्य की मृत्यु न जाने कितनी बार हुई है। उसका जन्म भी न जाने कितनी बार हुआ है लेकिन जन्म और मृत्यु--इन दोनों अवस्थाओं में वह मूर्छित ही रहता है। इसी कारण वह दोनों के अनुभवों से वंचित रह जाता है। मृत्यु का अनुभव आवश्यक है। जीवन-काल में ही मृत्यु के अनुभव को प्राप्त कर लेने का अर्थ है--मृत्यु के भय से मुक्ति और मृत्यु के बाद के जीवन पर विश्वास। जो मृत्यु के अनुभव को प्राप्त कर लेता है--वह यह समझ जाता है कि जीवन की धारा कहीं और है और वह कभी टूटती नहीं। जीवन सतत है। मृत्यु के पहले जो जीवन है वही जीवन मृत्यु के बाद भी है। मृत्यु से जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता, केवल शरीर बदल जाता है और सबकुछ पूर्ववत ही रहता है।मृत्यु के स्वरुप से परिचित होना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। मृत्यु को जानने-समझने और उसका अनुभव प्राप्त करने का जो मार्ग है वह है--ध्यान और समाधि। ध्यान की चरम अवस्था है समाधि। एक-न-एक दिन शरीर से आत्मा को अलग होना ही है। शरीर को छूटना ही है। समाधि में मनुष्य अपनी इच्छा से अपने शरीर से अलग होकर यह जान समझ लेता है कि मृत्यु हो गई। उसकी आत्मा उसके शरीर से अलग हो गई। मृत्यु का अर्थ इतना ही है कि अभी तक जो आत्मा शरीर के भीतर रह कर यात्रा कर रही थी अब उसमें से निकल कर किसी दूसरे शरीर द्वारा अपनी यात्रा पर निकल पड़ी है। जैसे एक यात्री किसी सवारी पर बैठ कर यात्रा करता है और बीच में उस सवारी को छोड़ कर किसी अन्य सवारी में बैठ कर आगे की यात्रा करता है। उसी प्रकार आत्मा भी अपनी अनंत यात्रा-काल में एक शरीर को छोड़ कर किसी दूसरे शरीर में प्रवेश कर अपनी आगे की यात्रा पर निकल पड़ती है।
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@ranak72
MahaRana (Kavita)
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Part 2 पुरातन और विस्तार जीवन की दो क्रियाएं हैं। यही प्राण का स्वरूप है। यही स्पंदन का स्वरूप है। स्पंदन के अभ्यास में दोनों श्वास समान हो जाती हैं। शरीर के भीतर प्राणतत्व की मात्रा बढ़ने लगती है और जैसे-जैसे यह मात्रा बढ़ती है, वैसे-वैसे शरीर के भीतर प्राणशक्ति जागृत होने लगती है। उन सुप्त शक्तियों के केंद्र को योगतंत्र की भाषा में 'चक्र' कहते हैं। हमें जीवित रहने के लिए जितनी ऑक्सीजन की आवश्यकता है, वह निश्चित है। प्राणायाम प्राण की साधना है। श्वास में ऑक्सीजन होती है, पर अल्प मात्रा में और निर्वासित होती है-कार्बन डाइऑक्साइड, पर अधिक मात्रा में। सच पूछा जाए तो यह ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड के अंतर से होने वाला आयु का क्षरण है। प्राणायाम के अभ्यास से धीरे-धीरे यह असमानता कम होने लगती है और अंत में समानता में बदल जाती है। इस अवस्था में जितनी अधिक ऑक्सीजन हमारे शरीर के अंदर जाती है, उतना ही अधिक कार्बन भी बाहर निकलता है। साधना के दूसरे चरण में सांस की गति सांस की मात्रा और मात्रा के अनुसार बढ़ा दी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप कार्बन की मात्रा भी उसी अनुपात में कम होती जाती है और अंत में एक स्थिति ऐसी आती है जब शरीर में कार्बन की मात्रा बहुत कम हो जाती है और ऑक्सीजन की मात्रा शरीर में बहुत अधिक हो जाती है। इस स्थिति में प्राण ही एकमात्र योगी का आहार बन जाता है। वह न तो कुछ खाता है और न ही कुछ पीता है। योगी इसी प्राण के साथ सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहते हैं।
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@ranak72
MahaRana (Kavita)
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Part 1 श्री गुरुवे संसार में जितने भी जीव हैं वे मानव और प्रकृति नहीं हैं, लेकिन इन सबका विकास चेतना शक्ति का आधार है। जिसके बिना कोई रचना और विकास संभव नहीं है, ज्ञान शक्ति मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के रूप में प्रकट होकर सृष्टि, नियंत्रण, पालन, व्यवस्था आदि का विकास करती है। यह जड़ शक्ति नहीं कर सकती। विज्ञान के मूल को सृष्टि का शाश्वत तत्व मानने के कारण वह भ्रमित हो गया कि सभी पदार्थ जड़ से उत्पन्न हुए हैं और शरीर, मन, आत्मा, चेतना आदि जड़ से ही प्रकट होते हैं। वे समाज की शक्ति को नकारते हैं, विज्ञान के अनुसार सभी जीव अमीबा से विकसित हुए हैं और मनुष्य बंदर का विकसित रूप है। लेकिन यह केवल उसका अनुमान है। इसे पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता। चाहे अमीबा हो या बंदर या मनुष्य पशु पक्षी और वनस्पति, वे दोनों जड़ चेतन से ही विकसित हुए हैं। जिसमें चेतना शक्ति ही उनके स्वरूप को निर्धारित करने का कार्य करती है। अकेला जड़ किसी भी प्रकार का व्यवस्थित रूप नहीं ले सकता, इसमें चेतन को जड़ की सहायता लेनी पड़ती है। इसलिए जड़ का महत्व हो जाता है। जैसे मनुष्य की अनेक प्रजातियाँ प्रारंभ में वनस्पति लेकर ही हैं। कुछ प्रजातियाँ जड़ और चेतन शक्ति के संयोग से विकसित हुईं और बाद में उनके संयोग से अन्य प्रजातियाँ बनती चली गईं। दूसरा और अध्यात्मवादी कहते हैं कि मनुष्य प्रारंभ से ही मनुष्य था और मनुष्य ही रहेगा। मनुष्य प्रारंभ से ही मनुष्य था और बंदर से बंदर का विकास नहीं हुआ और न ही अमीबा से विकास हुआ। मनुष्य में ज्ञानेन्द्रिय और करेन्द्रिय का विकास कैसे और क्यों हुआ, इसकी वैज्ञानिक चर्चा भारतीय अध्यात्म दर्शन में मिलती है, अन्य धर्मों में इसकी व्याख्या नहीं की गई। दो प्रकार के बीजों के संयोग से नई उपजाति उत्पन्न हो सकती है, लेकिन उसमें अपनी मूल जाति के गुण बने रहेंगे। मूल गुणों में कोई परिवर्तन नहीं होता। इस परिवर्तन का कारण चेतना की इच्छा शक्ति है, अन्यथा ज्ञान के बिना विकास संभव नहीं है, ज्ञान के बिना कोई क्रिया नहीं हो सकती। मानव जीवन में यदि सबसे महत्वपूर्ण कोई चीज है, तो वह है- प्राण। प्राण ही आयु है। प्राण शरीर में स्थित तीन अग्नि हैं-जठराग्नि, वदवाग्नि और दवाग्नि। शरीर की गर्मी दाव का परिणाम है। भूख-प्यास जठराग्नि का परिणाम है। इसी प्रकार शरीर में रक्त की गति, हृदय की धड़कन और वायु का संचार वदवाग्नि का परिणाम है। ब्रह्माण्ड के मूल में प्राण ही है, इसीलिए प्राण विद्या को सर्वविद्या बताया गया है। पंचतत्व अर्थात पंचभूत, प्राण और मन इन तीनों का समन्वय ही प्राण है। प्राण-तत्व क्या है, इसके नियम क्या हैं-इनका उत्तर है वेदविद्या। जहां प्राण है, वहीं प्राण है और जहां प्राण है, उस स्थान को 'यज्ञ' कहते हैं। यह यज्ञ प्राण के दो स्वरूपों-श्रद्धा-विश्वास के स्पंदन से प्रारंभ होता है। अन्य शक्तियों की भांति इसका ऋण भी धन से ऋण की ओर बढ़ना है। ऋण से धन की ओर जाने की क्रिया को 'एच' कहते हैं और धन से ऋण की ओर जाने की क्रिया को 'प्रेति' कहते हैं। जीवन के स्पंदन का अंत ही जीवन का अंत है। जिस दिन व्यक्ति जीवन की पहली सांस लेता है, उसी दिन उसकी अंतिम सांस भी स्थिर हो जाती है। मनुष्य स्तुति में मरता है। सांस लेना ही जीवन है। जब शरीर में अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड एकत्रित हो जाती है, तो सुस्ती आती है, हम आलस्य से घिर जाते हैं। यही एकमात्र कारण है कि दिन की अपेक्षा रात में नींद अधिक आती है। क्योंकि दिन में ऑक्सीजन और रात में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है। ऑक्सीजन का मूल स्रोत सूर्य है। ऑक्सीजन अर्थात प्राणतत्व, सूर्य से प्राप्त होकर पूरे संसार को प्रेरणा देता है। प्राणतत्व अत्यंत सूक्ष्म है। उसका स्थूल रूप प्राणवायु है। भौतिकी जीवन को 'ईश्वर कहती है।
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@ranak72
MahaRana (Kavita)
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हमारा निज का कुछ भी कार्य या प्रयोजन नहीं है। मानवता का पुनरुत्थान होने जा रहा है। ईश्वर उसे पूरा करने वाले हैं। दिव्य आत्माएँ उसी दिशा में कार्य कर भी रही हैं। उज्ज्वल भविष्य की आत्मा उदय हो रही है, पुण्य प्रभाव का उदय होना सुनिश्चित है। हम चाहे तो उसका श्रेय ले सकते हैं और अपने आपको यशस्वी बना सकते हैं। देश को स्वाधीनता मिली, उसमें योगदान देने वाले अमर हो गये। यदि वे नहीं भी आगे आते तो भी स्वराज्य तो आता ही वे बेचारे और अभागे मात्र बनकर रह जाते। ठीक वैसा ही अवसर अब है। बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति अवश्यम्भावी है। उसका मोर्चा राजनैतिक लोग नहीं धार्मिक कार्यकर्त्ता संभालेंगे। ऐसे लोग अपने विश्वरूपी परिवार में जितने भी हों, जो भी हों, जहाँ भी हों, एकत्रित हो जाएँ और अपना काम सँभाल लें। “वसुधैव कुटुम्बकम्” की प्रवृत्ति को समुचित मात्रा में धारण करना ही उचित है। घर का बड़ा वही कहलाता है जो अपने छोटे भाई बहिनों, अशक्त असमर्थों का भी पूरा ध्यान रखे। ऐसे ही गृहपति प्रशंसनीय कहे जाते हैं और वे ही उसे कुटुम्ब का ठीक तरह पालन पोषण कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। जो व्यक्ति अपनी निजी इच्छाओं, कामनाओं को ही सर्वोपरि स्थान देता हो और उतनी ही परिधि में सोचता विचारता हो, ऐसे स्वार्थी के हाथ में यदि बूढ़े पिता का उत्तरदायित्व आ जाय तो घर के छोटे लोगों को क्या प्रसन्नता होगी ? वे सब घाटे में ही रहेंगे और संकट में ही पड़ेंगे। न मैंने कल्पवृक्ष देखा है और न मैं आपको कल्पवृक्ष के सपने दिखाना चाहता हूँ; लेकिन अध्यात्म के बारे में मैं यकीनन कह सकता हूँ कि वह एक कल्पवृक्ष है। अध्यात्म कर्मकाण्डों को नहीं, दर्शन को कहते हैं, चिंतन को कहते हैं। जीवन में हेर-फेर कर सके, ऐसी प्रेरणा और ऐसे प्रकाश का नाम अध्यात्म है। ऐसा अध्यात्म अगर आपको मिल रहा हो या जहाँ मिल जाए या मिलने की संभावनाएँ हों , और उससे आप लाभ उ��ा लें, तो आप यह कह सकेंगे कि हमको कल्पवृक्ष के नीचे बैठने का मौका मिल गया है। 🌹
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@ranak72
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आपने सुना ही है कि "जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि" माने जैसा विचार वैसा संसार। वस्तु पहले भीतर हो तभी बाहर दिखती है। विचार की दृढ़ता ही दृश्य बनकर दिखाई देने लगती है। "यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।" इसी को कबीरदास जी ने यों कहा- "धड़ धरणी कर एकई लेखा। जो भीतर सो बाहर देखा॥" आपकी दृढ़ मान्यता ही समय पाकर, आपको सत्य जैसी भासने लगती है। यदि आप यहाँ तक की बात से सहमत हैं, तो आज जन्म जन्म का क्लेश ही मिट जाएगा। आएँ इसी को, मानने और जानने की दृष्टि से भी देखें। यह नियम सिद्ध है कि चिरकाल तक माना हुआ ही, सत्य मालूम पड़ता है। यह जो आपकी, न हुए कल्पित जगत में, सत्य बुद्धि हो रही है, देह में मैंपन बैठ गया है, यह आपकी अनन्त काल की मान्यता का ही फल है। इसी मान्यता के बोझ तले दब कर आत्मस्वरूप, अपनाआपा होकर भी कल्पना जैसा लगता है। सामान्यतया बड़े बड़े कहलाने वाले भी "आत्मा निकल जाती है" या "आत्मा की शाँति" या "मेरी आत्मा" जैसी मूर्खतापूर्ण बात कहते देखे ही जाते हैं जब आप मानते मानते अपने को देह जानने लगे, जो आप थे ही नहीं। तो जो आप हो ही, उसे मानते मानते जान लेने में क्या अड़चन है? माने आपकी वही बुद्धि, जो अभी तक जगत को सत्य और देह को "मैं" मान रही है, जिस दिन जगत को मिथ्या और अपनाआपा को देह से भिन्न मान लेगी, उस दिन आप इस जगत के बंधन से सदा सदा के लिए छूट नहीं जाएँगे? जो जगत सत्य दिखता है, उसे कल्पना मानने लगना और जो आत्मस्वरूप कल्पना लगता है, उसे सत्य मान लेना, यही और इतना ही मार्ग है। विचार करें कि वहाँ जगत में पिता को पिता जाना नहीं जाता, माना ही तो जाता है। ऐसे ही यहाँ आध्यात्म में भी जब तक मानो न, जानना नहीं होता। यही आत्मा, जिसे कि जाना नहीं जा सकता, को जानने की एकमात्र पद्धति है। ऐसा ही है__ गुरु सियाग सिद्ध योग जो सारे भ्रम मिटाकर सत्य से एकाकार करदेता है
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@ranak72
MahaRana (Kavita)
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{{{सत्यम जयते}}} अध्यात्म_ज्ञान अध्यात्म ज्ञान कभी संसार का तिरस्कार नही करता, न ही उसे विकृत करता है । बल्कि इसे और सुखद बनाता है । इस ज्ञान को प्राप्त करके व्यक्ति अनेक सांसारिक कुण्ठाओं से मुक्त होकर इस जीवन को आनन्द से जीता हुआ आगे के जीवन को भी आनन्दमय बना सकता है । इस प्रकार विज्ञान एवं अध्यात्म इस जीव के दो पंख होते है । जिनके सहारे वह निर्विध्न अपनी उडान भरता है एक का सहारा लेकर वह कभी अपने जीवन को सार्थक नही बना सकता ।इसलिए भौतिक उन्नति के साथ उसका आध्यात्मिक विकास सर्वाधिक महत्वपूर्ण है अन्यथा वह उस पंगू की भांति है जो एक ही टांग से दौड़ने का प्रयास करता है जो कभी सम्भव नही है । सुसंकृत व्यक्ति की पहचान भौतिक सांधनो से नही आँकी जा सकती है चाहे वह भौतिक साधनो से विपन्न ही क्यो न हो। इसलिए अध्यात्म ज्ञान को ही सृष्टि का सर्वोतिकृष्ट ज्ञान माना गया है इसी कारण आज ऋषि मुनियों का अवतारों का तीर्थकर आदि का समाज मे वह स्थान है जो किसी धनपति व नेताओ का नही है इनकी वाणी हजारो वर्षों से सुनी जा रही है यह इस ज्ञान का महत्व है।
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🔷 हमने भविष्य की झाँकी देखी है एवं बड़े शानदार युग के रूप में देखी है। हमारी कल्पना है कि आने वाला युग प्रज्ञायुग होगा। ‘प्रज्ञा’ अर्थात् दूरदर्शी विवेकशीलता के पक्षधर व्यक्तियों का समुदाय। अभी जो परस्पर आपाधापी, लोभ-मोहवश संचय एवं परस्पर विलगाव की प्रवृत्ति नजर आती है, उसको आने वाले समय में अतीत की कड़वी स्मृति कहा जाता रहेगा। हर व्यक्ति स्वयं में एक आदर्श इकाई होगा एवं हर परिवार उससे मिलकर बना समाज का एक अवयव। सभी का चिन्तन उच्चस्तरीय होगा। कोई अपनी अकेले की ही न सोचकर सारे समूह के हित की बात को प्रधानता देगा। 🔶 प्रज्ञायुग में हर व्यक्ति अपने आपको समाज का एक छोटा-सा घटक किन्तु अविच्छिन्न अंग मानकर चलेगा। निजी लाभ-हानि का विचार न करके विश्व हित में अपना हित जुड़ा रहने की बात सोचेगा। सबकी महत्वाकाँक्षाएँ एवं गतिविधियाँ लोकहित पर केन्द्रित रहेंगी न कि संकीर्ण स्वार्थपरता पर। अहंता को परब्रह्म में समर्पित कर आध्यात्मिक जीवन-मुक्ति का लक्ष्य अगले दिनों इस प्रकार क्रियान्वित होगा कि किसी को अपनी चिन्ता में डूबे रहने की- अपनी ही इच्छा पूर्ति की- अपने परिवार जनों की प्रगति की न तो आवश्यकता अनुभव होगी, न चेष्टा चलेगी। एक कुटुम्ब के सब लोग जिस प्रकार मिल-बाँटकर खाते और एक स्तर का जीवन जीते हैं वही मान्यता व दिशाधारा अपनाये जाने का औचित्य समझा जायेगा। 📖 अखण्ड ज्योति-
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**ध्यान की गहराइयों में खो जाता हूँ, **मन की अशांति को मिटा देता हूँ। **मन को मुक्त कर, आनंदित हो जाता हूँ, **विचारों के झंझावात में थम जाता हूँ। **शांति का एहसास होता है हर पल, **सांसों की मधुर लहरियों में रम जाता हूँ। **ध्यान की शक्ति में खुद को पाता हूँ, **हर क्षण नया, हर पल सजीव बन जाता हूँ। **मन को मुक्त कर, आनंदित हो जाता हूँ, **विचारों के झंझावात में थम जाता हूँ। **प्रकृति की गोद में, शांति पाता हूँ, **जीवन की धारा में, सम्मिलित हो जाता हूँ। **समाधि की सीमा में, स्वयं को खोता हूँ, **अविरल प्रेम में, ब्रह्मांड को पाता हूँ।
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कोई भी वृत्ति (विचार, भाव, आवेग आदि) तीन तल से गुजरती है. पहला तल अचेतन जहाँ से उदय होती है,मध्य अवचेतन तल और अन्त मे चेतन तल जहाँ प्रगट होकर देह तल पर व्यक्त हो जाती है. अज्ञानी तीनो तलो पर बेहोश है. वह न वृत्ति के उदय को देख पाता है, न हि जब वह व्यक्त होती है तब देख पाता है. ज्ञानी वृति के उदय को अचेतन तल पर ही देख कर उससे मुक्त रहता है. अथवा ज्ञानी मे वृति उदय ही नहीं होती है. साधक अपनी परिपक्वता के अनुसार विभिन्न तलो पर वृति को देख पाता है. देखने की इस प्रक्रिया को साक्षी की साधना या ज्ञान साधना कहते है. जब तक चित्त है, तब तक साक्षी की साधना या प्रक्रिया है. जब चित्त को उसकी पुर्णता मे देखना आ जाता है. तब चित्त गिर जाता है. साक्षी अपनी पुर्णता को उपलब्ध हो जाता है. तब देखने को कोई दृश्य शेष नहीं रहता है. दृष्टा अपने स्वरूप आत्मा Awareness मे स्थित हो जाता है. चित्त रहित चैतन्य हि ब्रह्म है -योग वशिष्ठ तदा दृष्टा स्वरुपे अवस्थानम -योग सुत्र यहि ब्राह्मी स्थिति है. जब क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ को ज्ञान चक्षु से अलग अलग देख लेते है - यहि लक्ष्य है जीवन का. आए और जाने गुरु सियाग जी के संजीवनी मंत्र से अपने जीवन untouch part , you tube gurusiyag siddh yog सत्संग~ प्रणाम एक शिष्य ने अपने गुरुदेव से पूछा- "गुरुदेव, आपने कहा था कि धर्म से जीवन का रूपान्तरण होता है। लेकिन इतने दीर्घ समय तक आपके चरणों में रहने के बावजूद भी मैं अपने रूपान्तरण को महसूस नहीं कर पा रहा हूँ, तो क्या धर्म से जीवन का रूपान्तरण नहीं होता है?" गुरुदेव मुस्कुराये और उन्होंने बतलाया- "एक काम करो, थोड़ी सी मदिरा लेकर आओ।" (शिष्य चौंक गया पर फिर भी शिष्य उठ कर गया और लोटे में मदिरा लेकर आया।) गुरुदेव ने शिष्य से कहा- "अब इससे कुल्ला करो।" (अपने शिष्य को समझाने के लिए गुरु को हर प्रकार के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। मदिरा को लोटे में भरकर शिष्य कुल्ला करने लगा। कुल्ला करते-करते लोटा खाली हो गया।) गुरुदेव ने पुछा- "बताओ तुम्हें नशा चढ़ा या नहीं?" शिष्य ने कहा- "गुरुदेव, नशा कैसे चढ़ेगा? मैंने तो सिर्फ कुल्ला ही किया है। मैंने उसको कंठ के नीचे उतारा ही नहीं, तो नशा चढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इस पर संत ने कहा- "इतने वर्षो से तुम धर्म का कुल्ला करते आ रहे हो। यदि तुम इसको गले से नीचे उतारते तो तुम पर धर्म का असर पड़ता। जो लोग केवल सतही स्तर पर धर्म का पालन करते हैं। जिनके गले से नीचे धर्म नहीं उतरता, उनकी धार्मिक क्रियायें और जीवन-व्यवहार में बहुत अंतर दिखाई पड़ता है। वे मंदिर में कुछ होते हैं, व्यापार में कुछ और हो जाते है। वे प्रभु के चरणों में कुछ और होते हैं एवं अपने जीवन-व्यवहार में कुछ और, धर्म ऐसा नहीं हैं, जहाँ हम बहुरूपियों की तरह जब चाहे जैसा चाहे वैसा स्वांग रच ले। धर्म स्वांग नहीं है, धर्म अभिनय नहीं है, अपितु धर्म तो जीने की कला है, एक श्रेष्ठ पद्धति है।।" धन्यवाद
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पुनर्जन्म सांसारिक भोगों की वासना ही जीव के पुनर्जन्म का मुख्य कारण है वासना रहित होने पर मन का पुनर्जन्म नही होता है अतृप्त इच्छाएँ ही वासना का रूप लेती है।पुनर्जन्म का दुसरा कारण जीव की चेतना का विकास हैएक जन्म मे जीव चेतना का पूर्ण विकास संभव नही है ।जिसमे ईश्वरीय विधान के अनुसार सृष्टा ने कई जन्मों की व्सवस्था की है । जिस प्रकार एक ही वर्ष एक ही कक्षा मे पढ़ लेने मात्�� से कोई उच्चकोटि का विद्वान नही बन जाता उस् कई कक्षाएँ उत्तीर्ण करनी पडती है । उसी प्रकार यह जीव चेतना भी कई जन्म धारण करके ही उनके संचित अनुभवों के आधार पर दिव्य जीवन एवं मोक्ष प्राप्त करती है।इसलिए ईश्वर ने ही इसकी व्यवस्था की है । बार बार जन्म लेने की प्रक्रिया उसके विकास के लिए अनिवार्य हैउच्च स्तरीय चेतना ही वासना रहित होकर मुक्ति का अनुभव करती है पुनर्जन्म का तीसरा कारण कर्मफल भोग भी है सृष्टि का ऐसा विधान है। कि सभी कर्मों का फल होता है जिनको भोगना आवश्यक है स्थूल कर्मों का भोग स्थूल शरीर से व स्थूल लोक मे ही भोगा जा सकता है इस भोग के लिए जीव चेतना का पुनर्जन्म होता है। कर्म का नियम ही ऐसा है कि वे बिना भोगे समाप्त नही होते न जीव चेतना का विकास ही होता है इसी के लिए बार बार जन्म लेना पडता है।मन-मृत्यु के बाद मन स्थुल शरीर के कारण मन की शक्ति एवं उसकी कार्य क्षमता मे कमी आ जाती है। लह अनेक प्रकार की वासनाओं, कामनाओं, इच्छाओं , आदि से ग्रस्त होकर सांसारिं मोह, ममता ईर्ष्या द्वेष कलह लोभ लालच आसक्ति राग शरीर पोषण अहंकार तृप्ति आदि मे इतना उलझ जाता है । जिससे उसकी शक्ति कई मार्गों मे व्यय हो जाती है।किन्तु मृत्यु के बाद यह सारा अपक्षय बच जाता है जिससे वह अधिक शक्तिशाली हो जाया है तथा उसकी कार्य क्षमता कई गुना बढ जाती है मृत्यु के बाद यह मन जीवित रहकर विभिन्न प्रकार के कार्यो का सम्पादन करता रहता है ।तथा कई प्रकार के नये अनुभव भी प्राप्त करता रहता है जो सांसारिक अनुभवों से भिन्न प्रकार के होते है। यही मन अपने स्तर के अनुसार विभिन्न लोको का भ्रमण करता है सुख दुखों का अनुभव करता है स्वर्ग नकर की अनुभूति भी यही करता है सुक्ष्म जगत् के विभिन्न प्रकार के प्राणियो के संपर्क मे आता है उनसे अपने नये सम्बन्ध बनाता है कई पूराने साथी व प्रिय जनों के साथ भी उसका संपर्क हो जाता है।इस प्रकार यहॉ भी यह काफी व्यस्त रहता है । यदि कोई स्थूल लोकवासी इससे संपर्क कर वहां साधता है तो वह यहाँ भी उपस्थित होकर इनसे संपर्क कर वहां का विवरण देता हैतथा इनकी हर सहायता करने को तैयार रहता है किसी के द्वारा आह्वान किये जाने पर यह किसी माध्यम मे प्रविष्ट होकर प्रश्नो के उत्तर देता है किन्तु माध्यम ऐसा होना चाहिए जो मानसिक स्तर के अनुकूल हो अथवा उसका रक्त संबन्ध हो उच्चमानसिक स्तर की आत्माएँ निम्न मानसिक स्तर वाले व्यक्ति मे प्रविष्ट नही हो सकती न निकृष्ट स्तर की आत्माएँ उच्च मानसिक स्तर वाले व्यक्ति मे प्रविष्ट होती है। आह्वान के लिए तन्त्र व प्रार्थना एवं एकाग्रता का प्रयोग किया जाता है। जो आत्माएँ सांसारिक वासनाओं से अधिक ग्रस्त होती है उनका भौतिक शरीर न होने से वे उन वासनाओं की पूर्ति नही कर सकती इसलिए वे उनकी पूर्ति के लिए किसी उपयुक्त शरीर के माध्यम की तलाश मेभी रहती है। जिससे वह उस शरीर के द्वारा उनका भोग कर सकें ऐसी आत्माएँ किसी उपयुक्त शरीर पर जबरदस्ती अपना अधिकार जमा लेती है ।तथा जब तक उन्हें संतुष्ट नही कर दिया जाता तब तक उनकी पीछा नही छोडती कुछ तांत्रिक साधनाएँ है। जिनसे किसी प्रेतात्मा को प्रलोभन आदि देकर उन्हे अपने वश मे किया जाता है तथा इनसे इच्छित कार्य भी करया जा सकता है। कई तांत्रिक इन आत्माओं की सहायता से विभिन्न प्रकार के चमत्कार भी दिखाते रहते है मन का अर्थ है मनन, चिन्तन, विचार जो दिखलायी दे। उसके साथ चिन्तन की धारा को जोड़ दे। इसे हम इस प्रकार से समझ सकते हैं। हम एक फूल देखते हैं। जब तक देखते हैं तब तक हमारे मन से फूल का सम्बन्ध नहीं है। लेकिन जैसे ही हम कहते हैं फूल बहुत ही सुन्दर है, सुगंधमय है उसी पल मन से फूल का सम्बन्ध जुड़ जाता है हमारे और फूल के बीच अस्तित्व अनिवार्य हो जाता है। इसी प्रकार जब हम कहते हैं कि फूल बेकार है, उसमें सुगन्ध तो है ही नहीं-तब भी मन हमारे और फूल के बीच आ जाता है। कहने का मतलब यह है कि अच्छे और बुरे दोनों ही स्थितियों में मन की उपस्थिति अनिवार्य है। फूल के बारे में अच्छी और बुरी धारणा यदि कोई बनाता है तो वह है मन। हम मन के अधीन हो जाते हैं।मन विचार, भाव, शब्द आदि को आविर्भूत करने वाला एक यंत्र है। वह सबका मूल स्रोत है मनुष्य अ मन की अवस्था में दो प्रकार से हो सकता है। पहली है गहन बेहोशी की अवस्था और दूसरी है समाधि की अवस्था।
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@ranak72
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पुनर्जन्म सांसारिक सुखों की इच्छा ही जीव के पुनर्जन्म का मुख्य कारण है। यदि मन इच्छा से मुक्त हो तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता। अतृप्त इच्छाएँ ही इच्छा का रूप ले लेती हैं। पुनर्जन्म का दूसरा कारण जीव की चेतना का विकास है। जीव की चेतना का पूर्ण विकास एक जन्म में संभव नहीं है। ईश्वरीय नियम के अनुसार सृष्टिकर्ता ने अनेक जन्मों की व्यवस्था की है। जिस प्रकार एक वर्ष एक कक्षा में अध्ययन करने मात्र से कोई उच्च कोटि का विद्वान नहीं बन जाता, उसे अनेक कक्षाएँ उत्तीर्ण करनी पड़ती हैं। उसी प्रकार यह जीव चेतना भी अनेक जन्म लेकर अपने संचित अनुभवों के आधार पर दिव्य जीवन और मोक्ष को प्राप्त करती है। इसलिए ईश्वर ने इसकी व्यवस्था की है। इसके विकास के लिए बार-बार जन्म लेने की प्रक्रिया आवश्यक है। उच्च कोटि की चेतना ही इच्छा से मुक्त होकर मोक्ष का अनुभव करती है। पुनर्जन्म का तीसरा कारण भी कर्मफल का भोग है। सृष्टि का नियम ऐसा ही है। कि सभी कर्मों के अपने परिणाम होते हैं जिन्हें भोगना ही पड़ता है। स्थूल कर्मों को स्थूल शरीर के माध्यम से तथा स्थूल जगत में ही भोगा जा सकता है। इस भोग के लिए जीव का पुनर्जन्म होता है। कर्म का नियम ऐसा है कि भोग के बिना यह समाप्त नहीं होता और न ही जीव चेतना का विकास होता है। इसके लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है। #मन-मृत्यु के बाद स्थूल शरीर के कारण मन की शक्ति तथा उसकी कार्य क्षमता क्षीण हो जाती है। अनेक प्रकार की वासनाओं, कामनाओं, इच्छाओं आदि से प्रभावित होकर मन सांसारिक मोह, राग, द्वेष, कलह, लोभ, लोभ, आसक्ति, मोह, शरीर पोषण, अहंकार तृप्ति आदि में इतना उलझ जाता है जिससे उसकी शक्ति अनेक प्रकार से व्यय हो जाती है। लेकिन मृत्यु के बाद यह सब क्षय शेष रह जाता है जिससे वह अधिक शक्तिशाली हो जाता है तथा उसकी कार्य क्षमता कई गुना बढ़ जाती है। मृत्यु के बाद यह मन जीवित रहता है तथा विभिन्न प्रकार के कार्य करता रहता है। तथा अनेक प्रकार के नए अनुभव भी प्राप्त करता रहता है जो सांसारिक अनुभवों से भिन्न होते हैं। यह मन अपने स्तर के अनुसार भिन्न-भिन्न लोकों में भ्रमण करता है, सुख-दुख भोगता है, स्वर्ग-नर्क भी भोगता है, सूक्ष्म जगत के भिन्न-भिन्न प्रकार के प्राणियों के संपर्क में आता है, उनसे नए संबंध बनाता है, अनेक पुराने मित्रों और प्रियजनों के संपर्क में भी आता है। इस प्रकार यह यहां भी काफी व्यस्त रहता है। यदि भौतिक जगत का कोई निवासी इससे संपर्क करता है और वहां ज्ञान प्राप्त करता है, तो यह यहां भी उपस्थित होकर उनसे संपर्क करता है और उस स्थान का विवरण देता है तथा उनकी हर प्रकार से सहायता करने के लिए तत्पर रहता है। किसी के द्वारा आह्वान किए जाने पर यह किसी माध्यम में प्रवेश करता है और प्रश्नों के उत्तर देता है, पर��तु माध्यम ऐसा होना चाहिए जो मानसिक स्तर के लिए उपयुक्त हो या उसका रक्त संबंधी हो। उच्च मानसिक स्तर की आत्माएं निम्न मानसिक स्तर वाले व्यक्ति में प्रवेश नहीं कर सकतीं, न ही निम्न स्तर की आत्माएं उच्च मानसिक स्तर वाले व्यक्ति में प्रवेश कर सकती हैं। आह्वान के लिए तंत्र, प्रार्थना और एकाग्रता का प्रयोग किया जाता है। जो आत्माएं सांसारिक इच्छाओं से अधिक ग्रस्त होती हैं, वे उन इच्छाओं को पूरा नहीं कर पातीं, क्योंकि उनके पास भौतिक शरीर नहीं होता। इसलिए वे अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए उपयुक्त शरीर की तलाश में रहती हैं। ताकि वे उस शरीर के माध्यम से उनका भोग कर सकें। ऐसी आत्माएं बलपूर्वक उपयुक्त शरीर पर कब्जा कर लेती हैं और तब तक उसे नहीं छोड़तीं, जब तक उनकी संतुष्टि न हो जाए। कुछ तांत्रिक क्रियाएं हैं, जिनके माध्यम से किसी भूत-प्रेत को लालच आदि देकर उसे वश में किया जा सकता है और उससे मनचाहा काम भी करवाया जा सकता है। कई तांत्रिक इन आत्माओं की मदद से तरह-तरह के चमत्कार दिखाते रहते हैं। मन का मतलब है चिंतन, सोच, विचार जो दिखाई देते हैं। विचारों के प्रवाह को इसके साथ जोड़िए। इसे हम इस तरह समझ सकते हैं। हम एक फूल को देखते हैं। जब तक हम उसे देखते हैं, तब तक फूल और हमारे मन के बीच कोई संबंध नहीं होता। लेकिन जैसे ही हम कहते हैं -- फूल बहुत सुंदर है, सुगंधित है -- उसी क्षण मन फूल से जुड़ जाता है और हमारे और फूल के बीच अस्तित्व आवश्यक हो जाता है। इसी तरह से जब हम कहते हैं कि फूल बेकार है, उसमें कोई सुगंध नहीं है तब भी मन हमारे और फूल के बीच में आ जाता है। मेरे कहने का मतलब यह कहने का तात्पर्य यह है कि मन की उपस्थिति अच्छी और बुरी दोनों ही स्थितियों में आवश्यक है। अगर कोई फूल के बारे में अच्छी या बुरी राय बनाता है, तो वह मन ही है। हम मन के अधीन है मन एक उपकरण है जो विचार, भाव, शब्द आदि को प्रकट करता है। यह इन सबका मूल स्रोत है।
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@ranak72
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धर्म_में_मैं_और_राजा यह वह समय है जब धर्म में राजनीति का दौर चल रहा है जब इस सम्पूर्ण भारत को विभाजित करने का षडयंत्र चल रहा है। धर्म, सम्प्रदाय, मत, पंथ, जाति, वर्ग, भाषा, रंग, लिंग, राष्ट्र, वेश-भूषा, कुल, उच्च, अछूत, आश्रम आदि के नाम पर इस एक मानवजाति को खण्ड खण्ड में बांटकर उसके स्वामी के साथ आपसी संघर्ष भी सिद्ध होने लगे हैं, जिससे यह मानवजाति और अधिक त्रस्त होगी। इससे भी ऊपर धर्म के नाम पर आत्मा में आत्मा का भेद कर दिया गया। यहाँ तक कि ईश्वर की आत्मा, उसके विभिन्न ईश्वरों का भेद बताकर जीव और जीव में भेद कर दिया और जीव ने जीव में भेद कर दिया, उसने नर और प्रकृति में भेद कर दिया। जिससे मनुष्य स्वतन्त्र और उन्मुक्त होकर अपनी मनमानी कर सके और सृष्टि के संचालन का दायित्व उठाकर अपना आधिपत्य स्थापित कर सके। इसी प्रकार की धारणा से यह संसार विकृत हो गया। ध्यान एक यौगिक प्रक्रिया है। ध्यान का चरम उत्थान है-सुमधि। समाधि के बिना भूतल में प्रवेश नहीं किया जा सकता। भूतल का अर्थ है-ऊपरी लोक। जब तक सूक्ष्म शरीर का अभ्यास सूक्ष्म लोक में प्रवेश करने न लगे, तब तक अध्यात्म का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। स्थूल शरीर से हजारों वर्ष तक ध्यान करते रहना कोई उपलब्धि नहीं है। केवल अपने आपको इस भ्रम में रखना है कि हम साधना कर रहे हैं। साधना और अभ्यास का भ्रम अलग-अलग है। जो व्यक्ति यह कहता है कि उसने साधना करते-करते वह उच्च अवस्था प्राप्त कर ली है, जिसे समाधि की अवस्था कहते हैं, संभव है कि वह साधना के नशे में डूबने को ही साधना मानता हो। साधना और साधना के नशे में जमीन-आसमान का अंतर है। बहुत से साधक जो विद्वान नहीं हैं, केवल अंधे और आस्तिक हैं, वे भजन-कीर्तन, पूजा-अर्चना को ही साधना मान लेते हैं और उसी में मस्त रहते हैं। पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन का अपना महत्व अवश्य है, लेकिन वह सब अभ्यास नहीं है। साधना का अर्थ है शरीर की साधना, प्राण की साधना, मन की साधना और अंत में आत्मा की साधना। सूक्ष्म शरीर से साधना करने की साधना ही साधना करने की शुरुआत है। साधना करते-करते साधक का सूक्ष्म जगत के विभिन्न आयामों में प्रवेश स्वतः ही हो जाता है। सूक्ष्म जगत में प्रवेश करते ही साधक के स्थूल शरीर पर अतिक्रमण हो जाता है। साधक को भारहीनता का बोध होने लगता है। इसका एकमात्र कारण गंध (पृथ्वी तत्व) का अतिक्रमण है। इस स्थिति में साधक का समय का बोध लुप्त हो जाता है। कब भोर होती है, कब शाम होती है, कब क्या होता है-इस पर सभी को विश्वास नहीं होता। साधक के लिए स्थूल जगत का अस्तित्व नगण्य हो जाता है। पूरा जीवन अंतर्मुखी हो जाता है। यदि ध्यान की सीमा और अवधि उपलब्ध हो जाए तो मन का अस्तित्व लुप्त हो गया। मन का अस्तित्व लुप्त होते ही सभी बोध समाप्त हो जाते हैं, सभी स्मृतियां भी अस्तित्व खो देती हैं। जब साधक की समाधि टूटती है, उस समय आत्मा द्वारा की गई सभी भावनाएं मन के धरातल पर आकर स्मृतियों का रूप ले लेती हैं। मन के विभिन्न आयामों की सीमाओं में जो धारणाएं होती हैं, उन्हें अनुभव कहते हैं, लेकिन आत्मा द्वारा की गई धारणा को ही हम भावनाएं कह सकते हैं। मन के अनुभवों और स्वयं द्वारा की गई भावनाओं में यही अंतर है। आत्मा द्वारा की गई सभी भावनाओं का वर्णन करना बुद्धि और मन के बस की बात नहीं है, फिर भी जो भी, जितनी शक्ति मन में होती है, उसके अनुसार आत्मा द्वारा की गई भावनाएं मन के पटल पर अंकित हो जाती हैं, जिसका वर्णन साधक अपने शब्दों में एक सीमा में करता है। समाधि की अवस्था में केवल उसी के लिए संभव है, जिसने जीवन में सभी आध्यात्मिक विषयों का गहन अध्ययन, चिंतन और मनन किया हो। जो व्यक्ति केवल भक्ति मार्ग से समाधि को उपलब्ध होता है, उसने जीवन में कभी भी ज्ञान की साधना का पालन नहीं किया, उसे समाधि में सभी अनुभूतियां होंगी, किन्तु समाधि भंग होने की स्थिति में वह अपनी वाणी द्वारा समाधि की अनुभूतियों का वर्णन नहीं कर सकता। अब तक इस संसार में जितने भी गूढ़, गोपनीय और रहस्यमय विषय अवतरित हुए हैं, वे सभी समाधि की अवस्था में आये हैं, जिसे सर्वप्रथम ऋषियों ने 'ऋतम्भरा' वाणी द्वारा सूत्रों का रूप दिया, जिसे समझना सामान्य जन के बस की बात नहीं है, जो सबके बस की बात नहीं है। कैसे मिलता है मनुप्य जन्म एक आत्मा का 20 लाख बार वृक्ष योनि में जन्म होता है।उसके बाद जलचर प्राणियों के रूप में 9 लाख बार जन्म लेती है।उसके बाद 10 लाख बार कीड़े मकोड़े बनना पड़ता है।उसके बाद 11 लाख बार पक्षी योनि में जन्म होता है।उसके बाद 20 लाख बार पशु योनि में जन्म लेती है आत्मा। उसके बाद कर्मानुसार गौ शरीर के बाद मनुष्य जन्म मिलता है।मनुष्य योनि में चार लाख बार जन्म का विधान है।उसके बाद पितृ या देव योनि की प्राप्ति होती है जय श्री राम
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@the_kashiVasi करो ना भैया किसने रोका है सबके अपने अपने विचार है जैसा दुनिया चलना चाहिए चलो भाई
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@DrDhiraj7 @_SanatanDharma भाई परेशानी तुमको हो रही है मुझे नहीं हो रही है तुम्हारी चेतना के स्तर जैसा है तुम वैसा ही सोच रहे हो
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@DrDhiraj7 @_SanatanDharma राजनीति हम नहीं करते हैं ये देख लो आपकी पोस्ट मेरी पोस्ट बता देंगे कि राजनीति कौन लोग करते हैं धर्म के नाम पर हम तो धर्म पर चलने वाले लोग हैं
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