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Sunil Sharma
@I_SunilSharma
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A True Gandhian, an academician, a teacher and a soldier of idea of India #Jaipur #Rajasthan
India
Joined April 2009
हम पिछड़ा पिछड़ा करते रहे और पिछड़ते गए…. !! अब भी वक़्त है जात पात से ऊपर उठकर सबको गले लगाए, क्या ब्राह्मण, क्या दलित, क्या राजपूत क्या जाट, क्या मीणा क्या गूजर, क्या दलित क्या बनिया, क्या मुसलमान क्या ईसाई सब हमारे भाई है, सच पूछा जाए तो यही असल गांधीवाद है, यही नेहरू और इंदिरा का दर्शन था, जब तक इसे नहीं समझेंगे तब तक जीत भी नहीं सकते।
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RT @I_SunilSharma: आधुनिक दिल्ली की निर्माता शीला दीक्षित जी का उत्तराधिकारी, क्या केजरीवाल जैसे डेमोगॉग को होना चाहिए था?
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इन रील छाप एसडीएम को ही देखिए जो ओपीडी में मरीजों को देखते डॉक्टर से किस तरीके से बात कर रहे है, ये इस का सबूत है कि ये काफ़ी कम पढ़े लिखे है जो बस किसी तरह एसडीएम बन गए है। इनकी इच्छा है कि डॉक्टर सब कुछ छोड़, इनके मरीज को देखे, दुर्भाग्य है कि पढ़े लिखे डॉक्टर साहब इस अर्धशिक्षित एसडीएम की बदतमीजी बर्दास्त करने को मजबूर है, इन लोगों की इन्ही हरकतों से नरेश मीणा जैसे लोग एसडीएम को थप्पड़ मार कर समाज में हीरो बन जाते है।
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RT @PrateekSinghINC: जयपुर शहर जिला कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष, लोकप्रिय जननेता एवं प्रसिद्ध शिक्षाविद स्व. सुरेश शर्मा जी पुण्यतिथि पर मैं…
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139 साल पहले आज ही के दिन देश में कांग्रेस स्थापना के साथ ही एक महान क्रांति का आगाज़ हुआ जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही सालों में देश के हर युवा में इन्क़िलाब का जज्बा पैदा हो उठा, गाँधी के आदेश पर जेल जाने का शौक ऐसा लगा कि बैरकों में जगह ही नहीं बची, राजस्थान में भी कांग्रेस प्रजामंडल बनाये गए, खादी समितियां बनाई गयी, हर एक में ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ बिगुल बजाने का जोश ऐसे भर उठा कि बस पूछों मत। ऐसी ही एक जेल यात्रा का दुर्लभ चित्र जिसमे मेरे पिता आचार्य श्री पुरुषोत्तम 'उत्तम' जेल की सलाखों के पीछे दिख रहे है।
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मनुस्मृति जलाई जाये या पढ़ी जाये या पढ़ कर जलाई जाये… भाग २ इनमे से कम से कम याज्ञवल्क्य स्मृति को तो आप मनु से भी बेहतर संगठित और संकलित पाएंगे साथ ही हिन्दू विधि की व्याख्या के लिए बंगाल में जीमूतवाहन की दायभाग और शेष भारत में विज्ञानेश्वर की याज्ञवल्क्य स्मृति पर मिताक्षरा नामक टीका काम में ली जाती रही है, तो फिर ऐसा क्या हुआ कि सामाजिक न्याय के सभी कथित योद्धाओं की कोप दृष्टि मनु पर ही पड़ी? दरअसल मनुस्मृति उस वक़्त जरूरत से ज़्यादा ही प्रकाश में आ गई जब अंग्रेजी शासन भारत के पूर्वी हिस्सों में स्थापित हो गया, अंग्रेज चाहते थे कि हिंदुओं के पारिवारिक मामले धर्मशास्त्रों के प्रकाश में तय किए जाए और मुसलमानों के मामले मुस्लिम विधि से। चुनाचें तेजी से हिंदू धर्मशास्त्रों की खोज चालू हुई, जिनका अनुवाद करवा कर हिंदुओं के विधिक मामले तय किए जा सके। अनुवाद का ये बीड़ा एशियाटिक सोसाइटी के मुखिया विलियम जोंस ने उठाया, जोंस ने इस कड़ी में पहला अनुवाद उस मनुस्मृति का करवाया जिस पर बारहवीं सदी के विद्वान कुल्लकभट्ट ने मन्वर्थ मुक्तावली टीका लिखी थी। मनुस्मृति के इस संस्करण में बारह अध्याय और 2694 से अधिक श्लोक थे। ऐसा नहीं था कि मनुस्मृति की कुल्लकभट्ट की टीका और उसके साथ जोंस को मिला यह पाठ सर्वश्रेष्ठ या निर्विवाद था वस्तुतः ये पाठ भाग्यशाली था, जो अपने अनुवादक विलियम जॉन्स को सबसे पहले मिल गया। नतीजा ये पाठ और इसपर कुल्लकभट्ट की टीका तब से लेकर आज तक सर्वाधिक बार छापी गई है। ज्ञातव्य है कि विलियम जोन्स के अनुवाद के बाद से आजतक मनुस्मृति के कोई पचास से अधिक वर्जन प्राप्त हो चुके है जिनमे भार्रुचि की सातवीं सदी की मनुस्मृति की “मानवशास्त्र विवरण टीका” जिसमे कुल्लक के पाठ से कम श्लोक है, नवीं सदी के प्रसिद्ध टीकाकार मेघातिथि की टीका, ग्यारवीं सदी के गोविंदराज की मनुटीका जिसका बड़ा हिस्सा कुल्लकभट्ट ने नक़ल किया है, इसके अतिरिक्त नंदन, नारायण, राघवानंद, सर्वजननारायण जैसे पचास टीकाकारों ने भी “मानवधर्म शास्त्र” जिसे अब मनुस्मृति कहा जाता है, पर अपनी टीकाए लिखी है। रोचक तथ्य यह है कि इनमें से हर टीका का मूलपाठ दूसरे लेखक के मूल पाठ से अलग है, ऐसे में सोचने का विषय है कि अगर मनुस्मृति को जलाये भी, तो इसका कौन सा संस्करण पाठ जलाये? फिर मनुस्मृति की कुल्लकभट्ट टीका में कई सारे इश्यू पर विरोधाभासी बाते है, जैसे इसके तीसरे अध्याय (3.55,56,57,58,59,70) में महिलाओं की गरिमा, सम्मान, प्रसन्नता, संतुष्टि, ख़ुशी और स्वातंत्र्य पर जोर दिया गया है वही पाँचवे अध्याय (5.147,148) में महिलाओं को सदैव पिता, भाई,पति और पुत्र के संरक्षण में रहने को कहा गया है जाहिर है इनमें से एक मत मनु का नहीं है जिसे कालांतर में जोड़ा गया, इसी तरह का विरोधाभास आपको व्यक्तिगत समानता में भी परिलक्षित होगा, यहाँ बारहवें अध्याय (12.125) में किसी भी व्यक्ति का चरमोत्कर्ष तभी माना गया है जब कि वह हर वर्ग के व्यक्ति के बीच समानता का व्यवहार करने लगे, तो वही डिफरेंट चैप्टर्स में जातीय भेदभाव पर जोर है। स्पष्ट है कि इन विरोधाभासी बातों में मूलतः मनु ने लिखा क्या था? ये पता करना बड़ा मुश्किल है। हम सब जानते है कि छापेखाने के आने तक हर पुस्तक अपने प्रकाशन के लिए कैलीग्राफर की मुहताज़ होती थी अक्सरकर किताब की प्रतियाँ बनाते वक़्त ये लोग कभी-कभी गलती से तो कभी इंटेंशनली कभी कुछ जोड़ देते थे तो कभी कुछ घटा भी दिया करते थे, ऐसे में ज़ाहिर था की हर पुस्तक का हर संस्करण पहले वाले से अलग हो या उसमे ख़ुद में भी समय के साथ विरोधाभास आ जाए। बहरहाल जब बारह अध्यायों में विभाजित विशाल मनुस्मृति का ये अनुवाद जब यूरोप पहुँचा, उससे पूर्व पश्चिमी दुनियाँ ने कभी भी इतनी विशद विधिक संहिता नहीं देखी थी, जिसमें न केवल सामाजिक, पारिवारिक या न्यायिक मामले थे वरन् राज्य, प्रशासन, विदेशनीति, राजस्व, करारोपण, अनुबंध, एविडेंस, युद्धविधि, दंड आदि पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया था। इसके यूरोप पहुँचते ही यूरोप के अकादमिक सर्किल में फ़ेड्रिक नीत्शे जैसे विद्वानों ने इसको बाइबिल से भी ऊपर ग्रेड कर दिया, नीत्शे तो यहाँ तक कह गए कि “क्लोज द बाइबिल एंड ओपन द मनु” तो कुछ विद्वानों ने इसे हम्मुराबी, ग्रीक, रोमन आदि सभी विधियों का जनक कह दिया। कमोबेश यही स्थिति बर्मा, जावा, बाली, थाईलैंड और कंबोडिया की हुई थी, जब सातवीं-आठवीं सदी में मनुस्मृति वहाँ पहुँची थी मगर क्योंकि वहाँ पूर्व में कोई संगठित धर्म नहीं था इसलिए उन्होंने इसे सकारात्मक लेते हुए मनु विधि को ही अपनी स्थानीय आवश्कताओं के हिसाब से मॉडिफाई करते हुए अपने क़ानून बनाये, क्रमशः ….
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मनुस्मृति जलाई जाये, पढ़ी जाए या पढ़ कर जलाया जाये…. भाग ३ यहाँ तक कि बर्मा जैसे बौद्ध राष्ट्र का धम्मथट तो पूर्णतया मनुस्मृति पर ही केंद्रित ही था। नीत्शे का यह कहना कि बाइबल “स्लेव मॉरैलिटी को इंड्यूस करती है और इंसान की मूलप्रवृति “विल टू पॉवर को सप्रेस करती है जब की मनुस्मृति मास्टर मॉरैलिटी की तरफ़ इंसान को प्रेरित करती है, जो कि हर इंसान का लक्ष्य होना चाहिए, परिणामत: मनु की विधि बाइबल से बेहतर है। इस कथन ने अनायास ही चर्च को मनु के विरोध में ला खड़ा किया, यूरोप के धर्मप्राण अब मनु की क्रिटिकल मीमांसा में लग गए। मनु की विधि जिसका वर्तमान प्राप्य स्वरूप भी कम से कम दो हज़ार वर्ष पुराना है, उसे बीसवीं सदी के मूल्यों की स्केल पर तौला जाने लगा। जिस पश्चिमी दुनियाँ ने अभी महिलाओं को मताधिकार भी नहीं दिया गया था, अमेरिका में तो अभी औरतें संपत्ति भी नहीं ख़रीद सकती थी वहाँ मनु और आधुनिक स्त्री पर लेख लिखे जाने लगे। जिस यूरोप ने अभी हाल ही में इंसानों को दास के रूप में खरीदना बेचना बंद किया था, अमेरिका में दासों के स्वामित्व पर गृहयुद्ध हो रहा था उस पाश्चात���य विश्व ने मनु की हज़ारों साल पुरानी अवधारणाओं की तुलना बीसवीं सदी के आधुनिक विचारकों से कर उसे रिग्रेसिव सिद्ध करने में अपनी ताक़त लगा दी। होना तो यह चाहिए था कि मनु की तुलना हम्मूराबी, तिगलिथ पिलेसर, मूसा, लायक्रेगस, सोलन या ड्रेकों जैसे समकालीन विधिनिर्माताओं से की जाती किंतु आधुनिक विश्व के उदय तक के किसी भी विधिनिर्माता से अगर मनु का मुकाबला किया जाता तो शायद मनु विजेता के रूप में उभर सकते थे, इसलिए मनु को आधुनिक मापदंडों, लैंगिंक समानता और समतामूलक उन अवधारणाओं पर, जो बीसवीं सदी में विकसित हुई है, तौला जाने लगा। जाहिर सी बात है दुनियाँ की कोई भी विधि अपने बनने के दो ढाई हज़ार साल बाद प्रासंगिक नहीं हो सकती, मगर क्या इस आधार पर उसे जला दिया जाना चाहिए? मगर ये जलाना हमारे तत्कालीन औपनिवेशिक स्वामियों को भी रास आ रहा था, जो गांधी के नेतृत्व में उठ खड़े जनआंदोलन से भयाक्रांत हो गए थे, वो ऐसा करके भारतीय समाज में एक नई दरार डाल सकते थे, विखंडन का बीज बो सकते थे, और उन्होंने ऐसा किया भी। जब गांधी के सम्मुख मनुस्मृति को जलाने से संबंधित प्रश्न रखा गया, तब गांधी ने कहा था कि मनुस्मृति को जलाने की बजाय उसके हर श्लोक को सत्य और अहिंसा के स्केल पर परखिए और जो श्लोक, जहाँ तक “सत्य और अहिंसा” के मापदंड पर खरा न उतरे उस हद तक उसको संशोधित कर ले। वैसे तो आज न मनुस्मृति को संशोधित करने की आवश्यकता है, न जलाने की, न गरियाने की, न ही नीत्शे की तरह इसे महिमामंडित करने की, आज जरूरत इस बात कि है कि हमारे पुस्तकालय इसे सहेज कर रखें जहाँ आ कर इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति, विधि, अर्थशास्त्र और विभिन्न मानविकी एवं सोशल साइंसेज़ के छात्र तटस्थभाव से इसका गहन अध्ययन कर ये जान सके कि भारतीय समाज की उन्नति-अवनति में मनुस्मृति ने अपनी भूमिका किस प्रकार निभाई है।
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मनुस्मृति जलाई जाए, पढ़ी जाये, पढ़ कर जलाई जाये, हो सकता है, पढ़ने के बाद जलाने का दिल नहीं करे, बेहतर है, बिना पढ़े ही जला दी जाए। किंतु महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि एक ऐसी किताब जो कोई दो-ढाई हज़ार साल पहले लिखी गई हो, जिसे इस दौरान किसी शासक ने विधिक मान्यता भी नहीं दी हो, ऐसी किताब को जलाने की आवश्यकता क्यो आन पड़ी? विशेषकर तब जब कि हम जानते है कि दुनियाँ की कोई भी विधि स्थाई नहीं होती। जो क़ानून आज प्रासंगिक है वो कल ही प्रासंगिक नहीं रहते, तभी तो देश के क़ानून 299 प्रतिभाशाली प्रतिनिधियों द्वारा बड़े जतन से बनाये हमारे संविधान को भी पिछले चौहत्तर सालों में सौ बार से अधिक (106) संशोधित करना पड़ा है। हमारे प्राचीन स्मृतिकार भी इस बात को बखूबी जानते थे कि जो विधि वो बना रहे है वो केवल उसी दौर के लिए है, ये सर्वकालिक नहीं है, तभी तो महर्षि पाराशर, अपनी पाराशरस्मृति में कहते है: “युगे युगे च ये धर्मास्तत्र तत्र च ये द्विजा:। तेषा निंदा न कर्तव्या युगरूपा हि ते द्विजा: ।। (१:३३) यानी प्रत्येक युग में जो धर्म या विधि लिखी जाती है वो उस युग के ही अनुरूप होती है, इसलिए इन विधि प्रवर्तकों की निंदा नहीं की जानी चाहिए क्योंकि वे स्वयं भी तो अपने ही युग के अनुरूप होंगे। पाराशर ही नहीं सभी धर्मशास्त्रकार इस बात से वाक़िफ़ थे कि उन लोगों द्वारा प्रवर्तित विधि ना तो सार्वभौमिक है न सर्वकालिक, इसीलिए भारत में लगातार धर्मशास्त्रीय ग्रंथ लिखे गए। मनु से पूर्व भी ढेरों धर्मस्मृतियाँ और धर्मसूत्र लिखे गए, जिनमे से गौतम, अश्वालयन, आपस्तम्ब और वशिष्ठ के धर्मसूत्र तो आज भी उपलब्ध है, मनु ने तो अपनी स्मृति में काफी कुछ गौतम धर्मसूत्र से लिया भी है और ऐसा भी नहीं है कि मनु के पश्चात धर्मशास्त्र लिखे जाने समाप्त हो गए, मनु के बाद याज्ञवल्क्य, पराशर, नारद, विष्णु, कश्चप, गर्ग, उषना, अत्रि, शंख, संवर्त, अंगिरा, शतातप, हारीत, कात्यायन आदि अनेकों विद्वानों ने स्मृतियाँ लिखी है। (1) क्रमशः
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विधायकी और भगवा दोनों बहुत बड़ी जिम्मेदारी आयद करते है मगर जो घृणा की लहलहाती फसल पर सवार हो इक़्तेदार पर आ बैठे हो वो रोज़ इसमें खाद-पानी तो डालेंगे ही, यही तो हो रहा है हमारे प्यारे शहर जयपुर में। आज ज़रूरत इस बात की है कि इनके मुक़ाबिल हम सब साथ मिलकर मोहब्बत के बीज बोए। यक़ी मानिए जीत हमारी होगी, जीत हक़ की होगी, जीत सत्य की होगी। “सत्यमेव जयते” आपका, सुनील शर्मा
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