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Chronicles of Indian National Congress - the transformative journey that shaped India's destiny. Revisiting history with pride. #CongressProud #INCHistory

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जब नेहरुजी ने बताया : भारतमाता कौन हैं? #HistoryVideos #StoryofNehru
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जन्मतिथि स्मरण दरबारा सिंह (10 फरवरी 1916 — 10 मार्च 1990) दरबारा सिंह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ और पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री थे। वह 6 जून 1980 से 10 अक्टूबर 1983 तक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने अपनी शिक्षा खालसा कॉलेज, अमृतसर से प्राप्त की। 1942 से 1945 के बीच वे भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने के कारण जेल भी गए। दरबारा सिंह विस्थापित लोगों के लिए शरणार्थी शिविरों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ-साथ पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव के रूप में भी कार्यरत रहे। 1957 से 1964 तक वह इस कमेटी के अध्यक्ष रहे। उन्होंने 1952 से 1969 तक पंजाब विधानसभा में कार्य किया और इस दौरान कृषि, विकास और गृह मंत्रालयों सहित कई महत्वपूर्ण विभागों का प्रभार संभाला। 1984 में, वह राज्यसभा के लिए चुने गए, और 1986 में हाउस कमेटी के अध्यक्ष बने। राज्यसभा में भी उन्होंने उत्कृष्ट कार्य किया और एक कुशल प्रशासक के रूप में अपनी पहचान बनाई। दरबारा सिंह ने एक अच्छे पार्टी पदाधिकारी और पार्टी के आंतरिक मामलों के प्रबंधक के रूप में ख्याति अर्जित की। 10 मार्च 1990 को उनका निधन हुआ।
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डॉ. ज़ाकिर हुसैन: प्रेरणा के प्रतीक
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जन्मतिथि विशेष डॉ. ज़ाकिर हुसैन (8 फ़रवरी, 1897- 3 मई, 1969)
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नेहरू की कहानी – 45 कश्मीर समस्या, पंडित नेहरू और हरि सिंह 1947 में भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ, और स्वतंत्रता से एक महीने पहले ब्रिटिश शासन उपमहाद्वीप से समाप्त हो गया। ब्रिटिश अधीनस्थ रियासतें अब स्वायत्त हो गई थीं। माउंटबेटन ने रियासतों को व्यावहारिकता के आधार पर भारत या पाकिस्तान में विलय करने की सलाह दी। जून 1947 में, माउंटबेटन ने इसी संदर्भ में महाराजा हरि सिंह से मिलने के लिए कश्मीर का दौरा किया। हालांकि, महाराजा निर्णय लेने में हिचकिचा रहे थे। माउंटबेटन ने उनसे कहा: "किसी भी तरह अपनी जनता की राय जानने का प्रयास करें और जिस देश में आपकी जनता शामिल होना चाहे, उसमें 14 अगस्त 1947 तक विलय कर लें।" इसके बावजूद, न तो महाराजा जनता की राय ले सके और न ही स्वयं कोई निर्णय कर पाए। माउंटबेटन के साथ अंतिम बैठक में, जहाँ उन्हें अपना निर्णय बताना था, उन्होंने पेट दर्द का बहाना बनाक�� इसे टाल दिया। माउंटबेटन ने खुलकर कश्मीर के महाराजा की अनिश्चितता की निंदा की भारत लौटने के बाद, जून 1948 में लंदन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की एक सभा में, माउंटबेटन ने कश्मीर के महाराजा की अनिश्चितता की खुलकर निंदा की। उन्होंने कहा: "यदि वह 14 अगस्त से पहले पाकिस्तान में विलय कर जाते, तो भारत की भावी सरकार ने हिज हाइनेस को यह आश्वासन देने की अनुमति दी थी कि वह इस पर कोई आपत्ति नहीं करेंगे। यदि हिज हाइनेस 14 अगस्त तक भारत में विलय कर जाते, तो उस समय पाकिस्तान का अस्तित्व नहीं था और वह हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। लेकिन किसी भी पक्ष में विलय न करने से ही समस्या खड़ी हो सकती थी, और दुर्भाग्यवश महाराजा ने टालमटोल का रास्ता चुना।" महाराजा हरि सिंह ने शायद विलंब से लाभ की उम्मीद की थी, लेकिन घटनाओं ने उन्हें घेर लिया। उन्होंने भारत और पाकिस्तान दोनों से समय मांगकर अस्थायी समाधान तक पहुँचने का प्रयास किया। इस बीच, वह "निर्णय की कठिन घड़ी" को टालते हुए कश्मीर को स्वतंत्र रखने की आशा में बने रहे। 14 अगस्त को, पाकिस्तान ने कश्मीर के साथ एक यथास्थिति समझौता किया, जिसके तहत उसने कश्मीर को ब्रिटिश भारत के एक अंग के रूप में स्वीकार करते हुए डाक और तार सेवाओं का संचालन जारी रखने का वचन दिया। यह समझौता 15 अगस्त से लागू हुआ। महाराजा के कश्मीर को एक स्वतंत्र राज्य बनाए रखने के प्रयासों में भारत ने भाग नहीं लिया, क्योंकि भारत इस पहल को समर्थन देने के लिए अनिच्छुक था। महाराजा का यह कदम कश्मीर समस्या का कारण बना। Successor State का सिद्धांत मई 1947 में, भारत और ब्रिटेन के बीच स्वतंत्रता समझौते के दौरान, पंडित नेहरू ने इस बात पर जोर दिया कि भारत और उसकी संविधान सभा ब्रिटिश भारत के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं, जबकि पाकिस्तान और मुस्लिम लीग विभाजनकारी ताकतें हैं। 24 मई को, यूनाइटेड प्रेस ऑफ अमेरिका को दिए एक साक्षात्कार में, पंडित नेहरू ने कांग्रेस का दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहा: "हमारा उद्देश्य भारत की एकता है, लेकिन विशेष क्षेत्रों को स्वेच्छा से अलग हो जाने का अधिकार है। हम किसी को जबरदस्ती रोकने की कल्पना नहीं करते हैं।" बाद में, पंडित नेहरू ने Successor State के सिद्धांत को कश्मीर के महाराजा की रियासत के संदर्भ में न्यायसंगत रूप से लागू किया। अगस्त 1952 में भारतीय संसद में दिए गए उनके एक भाषण में यह विचार और अधिक स्पष्ट हुआ: "जब ब्रिटिश शासन ने भारत में अपनी सत्ता स्थापित की, तो यह स्पष्ट हो गया कि भारत में कोई अन्य सत्ता स्वतंत्र नहीं रह सकती, चाहे वे अर्ध-स्वतंत्र राज्य हों या संरक्षित क्षेत्र। इन्हें धीरे-धीरे ब्रिटिश सत्ता के अधीन लाया गया। जब ब्रिटिश भारत से गए, तो भारत के छोटे-छोटे क्षेत्र स्वतंत्र नहीं रह सकते थे, ठीक वैसे ही जैसे ब्रिटिश शासन के दौरान नहीं रह सकते थे।'' यह अनि��ार्य था कि रजवाड़े और अन्य क्षेत्र भारतीय गणराज्य की सर्वोपरि सत्ता को स्वीकार करें। कश्मीर ने तत्काल यह निर्णय नहीं किया कि वह भारत में विलय करेगा या पाकिस्तान में, लेकिन यह तय था कि कश्मीर स्वतंत्र नहीं रह सकता था। पंडित नेहरू ने आगे कहा: "इसलिए हमारा यह निर्विवाद दायित्व था कि हम यह सुनिश्चित करें कि कश्मीर के हित सुरक्षित रहें। यह इस पर निर्भर नहीं करता कि कश्मीर भारत में विलय करता है या नहीं। जब तक कोई रियासत जानबूझकर भारत से अलग नहीं होती, हमारा सतत उत्तरदायित्व सभी रियासतों के प्रति बना रहता है।" भारत सरकार का दृष्टिकोण स्पष्ट था कि जब तक कश्मीर भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ विलय नहीं करता, वह स्वतंत्र नहीं रह सकता था। चूँकि कश्मीर भारतीय क्षेत्र का हिस्सा था, इसलिए उसकी सुरक्षा और हितों की ज़िम्मेदारी भारत पर थी। जारी... #नेहरूकीकहानी #stotyofnehru
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सरदार की कहानी- 37 आंदोलन स्थगित करने का सुझाव नवंबर 1943 में मौलाना आज़ाद ने जवाहरलाल नेहरू को एक सुझाव दिया। उनका मानना था कि जापान के बढ़ते खतरे और बंगाल में आए विनाशकारी अकाल को ध्यान में रखते हुए, कांग्रेस कार्यकारिणी को आंदोलन स्थगित करने पर विचार करना चाहिए और वायसराय को इस संबंध में पत्र भेजना चाहिए। यह विचार पंडित नेहरू को पसंद नहीं आया। उन्होंने इस पर वल्लभभाई पटेल से चर्चा की, उन्होंने इसे "खतरनाक" करार दिया, और नेहरू भी इस राय से सहमत हुए। वल्लभभाई पटेल ने नेहरू, मौलाना आज़ाद और अन्य नेताओं के समक्ष कहा, "इसमें मुझे बहुत बड़ा खतरा दिखाई दे रहा है। हमें जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। बापू कोई न कोई कदम उठाए बिना नहीं रहेंगे। न तो शांत रहेंगे, न चुप बैठेंगे। इसलिए हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए।" नेहरू और पटेल ने संक्षेप में अपनी राय रखते हुए मौलाना आज़ाद के प्रस्ताव का विरोध किया। मौलाना आज़ाद ने कहा कि उन्हें विश्वास है कि "गांधीजी को यह प्रस्ताव पसंद आएगा।" शंकरराव देव ने मौलाना आज़ाद को यह विचार "अपने मन से पूरी तरह निकाल देने" की सलाह दी। माता कस्तूरबा का निधन गांधीजी के साथ पूना में नज़रबंद कस्तूरबा, लंबी बीमारी के बाद फरवरी 1944 में गांधीजी की गोद में सिर रखकर स्वर्ग सिधार गईं। उन्हें सभाओं पर लगाए गए प्रतिबंध को तोड़ने के कारण कारावास की सजा मिली थी, और सरकार ने उन्हें आग़ाख़ान महल भेज दिया था। वहाँ की नमी और मच्छरों का आतंक जानलेवा थे। महात्मा ने वहाँ महादेव भाई और कस्तूरबा को खो दिया था और खुद भी गंभीर रूप से बीमार हो गए थे। वल्लभभाई पटेल के प्रति उनका गहरा स्नेह था। मण�� बहन ने उनकी सेवा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जेल में भी उनके साथ रहीं। वल्लभभाई पटेल ने अपने कई पत्रों में कस्तूरबा द्वारा झेली गई कठिनाइयों का उल्लेख किया है। कस्तूरबा के देहांत के करीब डेढ़ महीने बाद सरदार पटेल को लगा कि सरकार गांधीजी को जल्द ही उनके साथ रखने वाली है, लेकिन यह अनुमान गलत साबित हुआ। गांधीजी की रिहाई 6 मई 1944 को अचानक गांधीजी को रिहा कर दिया गया। वह पेचिश और बुखार के कारण गंभीर रूप से बीमार हो गए थे, और सरकार कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती थी। स्वास्थ्य लाभ के लिए गांधीजी ने जुहू के समुद्र तट, सेवाग्राम और पंचगनी की पहाड़ियों में कुछ समय बिताया। दो महीने बाद, चर्चिल ने वाइसराय वेवल को तार भेजकर पूछा, "गांधी अभी तक मरे क्यों नहीं?" चर्चिल की यह निराशा वल्लभभाई पटेल के लिए आनंद का कारण बनी। पटेल का अनुमान था कि गांधीजी सरकारी दमन और अपने प्रस्तावों के बीच संतुलन साधते हुए कांग्रेस की मुक्ति के लिए कोई नया मार्ग तलाश रहे थे। गांधीजी ने पंचगनी में राजाजी से चर्चा करने के बाद जुलाई में दो महत्वपूर्ण कदम उठाए। पहला कदम सरकार की ओर था—उन्होंने वाइसराय वेवल को पत्र भेजकर सूचित किया कि यदि केंद्रीय सभा के प्रति उत्तरदायी राष्ट्रीय सरकार बनने वाली हो, तो वह "असहयोग स्थगित करके युद्ध-प्रयत्नों में सहयोग देने" के लिए कांग्रेस कार्यकारिणी को समझाने का प्रयास करेंगे। यह प्रस्ताव मौलाना आज़ाद द्वारा सुझाए गए नए प्रस्ताव के समान ही था। पटेल का मानना था कि "भारत छोड़ो" की मांग को शिथिल करना सही नहीं था, लेकिन उनके पास कोई अन्य व्यावहारिक विकल्प नहीं था। हालांकि, उन्होंने पहले मौलाना आज़ाद के प्रस्ताव का विरोध किया था क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि कांग्रेस कार्यकारिणी गांधीजी को अंधेरे में रखकर सरकार की शरणागति स्वीकार कर ले। सरकार ने गांधीजी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। गांधीजी का जिन्ना के साथ संवाद गांधीजी ने दूसरा कदम मुस्लिम लीग और उसके नेता मोहम्मद अली जिन्ना की ओर बढ़ाया। मुस्लिम लीग के साथ किसी समझौते की संभावना तलाशने के लिए, उन्होंने सितंबर माह में 14 बार जिन्ना के मुंबई स्थित घर जाकर उनसे मुलाकात की। हालांकि, यह पहल पटेल को पसंद नहीं आई। मौलाना आज़ाद और जवाहरलाल नेहरू भी इससे खुश नहीं थे। अहमदनगर जेल में बंद कांग्रेस नेताओं में केवल आसफ़ अली ऐसे थे, जिन्होंने गांधीजी के इस प्रयास का स्वागत किया। गांधीजी ने जिन्ना के समक्ष वह समाधान रखा, जिसे पहले राजाजी ने प्रस्तावित किया था, लेकिन जिन्ना ने इसे अस्वीकार कर दिया। इस प्रस्ताव के अनुसार, यदि वयस्क हिंदू-मुसलमान विभाजन की मांग करते, तो स्वतंत्रता के बाद मुस्लिम-बहुल क्षेत्र भारत से अलग हो सकते थे। इस आधार पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग को मिलकर एक संयुक्त राष्ट्रीय सरकार की मांग करनी थी। गांधीजी के इस प्रस्ताव को पाकिस्तान की स्वीकृति के रूप में देखा गया। हालांकि, जिन्ना इससे संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि इस योजना में बंगाल और पंजाब के हिंदू-बहुल जिले शामिल नहीं थे। इसके अलावा, यह प्रस्तावित पाकिस्तान एक सार्वभौम राष्ट्र नहीं होता, क्योंकि गांधीजी का आग्रह था कि यदि "हिंदुस्तान-पाकिस्तान के अलगाव का करार होता है, तो उसमें दोनों देशों के बीच गठबंधन का प्रावधान लिखित रूप में शामिल किया जाए।" वह किसी भी हाल में देश को एक रखना चाहते थे। जारी... #सरदारपटेलकीकहानी#StoryofSardarPatel
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बेगम सकीना लुकमानी: जिन्होंने माफी नहीं मांगी
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बंटवारे के खिलाफ थे ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान
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संविधान निर्माण और मोतीलाल नेहरू
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जन्मतिथि विशेष ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान (6 फ़रवरी, 1890 - 20 जनवरी, 1988)
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पुण्यतिथि स्मरण मोतीलाल नेहरू (6 मई 1861– 6 फ़रवरी 1931)
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1948 में आज के दिन सरदार पटेल ने लगाया था आ��एसएस पर प्रतिबंध
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चौरी-चौरा और महात्मा गांधी
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जन्मतिथि विशेष एम. ए. अय्यंगार (4 फरवरी, 1891 - 19 मार्च, 1978)
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21 जनवरी 1954 को पौष पूर्णिमा के अवसर पर संगम तट पर पंडित जवाहरलाल नेहरू
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जन्मतिथि विशेष राजकुमारी अमृत कौर (2 फरवरी 1889 – 2 अक्टूबर 1964)
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जन्मतिथि स्मरण राजकुमारी अमृत कौर (2 फरवरी 1889 – 2 अक्टूबर 1964) महात्मा गांधी अकसर अपने लेटर में अमृत कौर को 'मेरी प्यारी बेवकूफ' और 'बागी' बुलाते थे और आखिर में खुद को तानाशाह भी बुलाते थे। आजाद भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री बनने का सौभाग्य भी राजकुमारी अमृत कौर को मिला।
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जन्मतिथि विशेष अब्बास तैयबजी (1 फ़रवरी, 1854 – 9 जून, 1936)
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अब्बास तैयबजी  की मृत्यु पर गांधी जी ने हरिजन अखबार में  ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ गुजरात) शीर्षक से लेख में लिखा-  मैं तैयबजी से 1915 में पहली बार मिला, अब्बास मियाँ हरिजन सभा में एक हिंदू की तरह ही काम करते। उनका  इस्लाम धर्म हर एक को समाहित करता है, जज होकर भी कैद में रहना, एशो आराम छोड़कर आमजन के साथ घुल मिल जाना कोई मामूली बात नहीं। वह कोई भी काम आधे अधूरे मन नहीं से नहीं करते थे, उनकी नज़र में ईश्वर का असल स्वरूप दरिद्रनारायण है जो बेबसों में बसता है, उनके विश्वास ने हर बाधा पर विजय पा ली। वह मानवता के एक दुर्लभ सेवक थे। वह भारत के सेवक थे। उनका मानना था कि भगवान सबसे मामूली झोपड़ियों में और पृथ्वी के निराश्रित लोगों में पाए जाते हैं। अब्बास मियां मरे नहीं हैं, हालांकि उनका शरीर कब्र में है। उनका जीवन हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत है।
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पुण्यतिथि स्मरण श्रीकृष्ण सिंह (21 अक्टूबर, 1887 – 31 जनवरी, 1961)
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